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बाइबिल की 52 कहानियाँ - Lesson 36

स्वर्ग राज्य सम्बन्धित अध्ययन

शिष्य लोग दो प्रमुख घटनाओं की अपेक्षा में थे: मन्दिर का विनाश और यीशु का दोबारा आगमन, इसके चिन्ह और चेतावनियाँ होगी ताकि वे यरूशलेम से भाग सकें और यह घटना 70 ई०पू० में घटी परन्तु यीशु दोबारा कब आएँगे इसके लिये कोई चिन्ह और चेतावनी नहीं दी गई है और इस युग का अन्त कब होगा। चेलों की यह जिम्मेदारी नहीं है कि वे जाने कि यह कब होगा - यहाँ तक कि यीशु भी नहीं जानते हैं परन्तु तैयार होकर जीवन बिताए हमेशा तैयार रहें।

Lesson 36
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स्वर्ग राज्य सम्बन्धित अध्ययन

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Lessons
  • उत्पत्ति का पहला अध्याय सम्पूर्ण बाइबिल के लिये मूल-भूत अध्याय है। यह हमें केवल यह ही नहीं बताता है कि सारी चीजों का आरम्भ कैसे हुआ, परन्तु यह इस बात की बुनियादी शिक्षा भी देता है कि परमेश्वर कौन है और हम परमेश्वर से कैसे सम्बन्धित हैं। इतिहास और विज्ञान के द्वितीय मुद्दों  पर तर्क वितर्क न करके, उत्पत्ति का 1 अध्याय हमें बताता है कि हमंे अपनी आखें स्वर्ग की ओर लगानी चाहिये। जो परमेश्वर की महिमा का अद्भुत बयान करता है।

  • सृष्टि के छठवें दिन हम यह सीखते हैं कि इंसान परमेश्वर के सृष्टि की सर्वोत्तम रचना है, जिसे परमेश्वर के स्वरूप में रचा गया है। यह मनुष्य की गरिमा का स्रोत है और इसीलिये हम आत्मिक तरक्की करना चाहते हैं ताकि हम और आधिक उसके समान दिखाई पड़ सकें।

  • उत्पत्ति का 3 अध्याय इस बात का वर्णन करता है कि आदम और हव्वा किस तरह से पाप में गिर गए थे। और उनके पाप के कारण, कैसे परमेश्वर से उनका और समस्त मानव जाति का सम्बन्ध टूट गया, और वहाँ पर परमेश्वर एक उद्धारकर्ता की प्रतिज्ञा करता है।

  • उत्पत्ति 6-9 अध्यायों में बच्चों की कहानी नहीं है, यह हमारे पाप के प्रति परमेश्वर के क्रोध को दर्शाता है और फिर यह भी दिखाता है कि परमेश्वर छुड़ाने वाला परमेश्वर है। नूह की तरह हमें अपने विश्वास में कदम उठाने के लिये चुनौती देती है।

  • उत्पत्ति 12:1-15:6 एक व्यक्ति इब्राहीम पर केन्द्रित है जो अदन के बगीचे के मानव जाति के छुटकारे के लिये की गयी प्रतिज्ञा के पूरे होने का हिस्सा है। इब्राहीम को दो कार्य करना आवश्यक है, विश्वास करना और उस विश्वास के अनुसार कार्य करना। और जब वह ऐसा करता है तो परमेश्वर उसके साथ और उसकी सारी सन्तानों के साथ और इस्राएल और कलीसिया के साथ एक अनन्त वाचा बान्धता है। हमें भी अपने आत्मिक पिता के पद चिन्हों पर चलना चाहिये: विश्वास करें व उसके अनुसार कार्य करें।

  • उत्पत्ति 37-50 अधयायों में यूसुफ की कहानी मिलती है जो परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं के प्रति विश्वासयोग्यता का वर्णन है। जो उसने इब्राहीम से की थी कि वह सर्वशक्तिमान है और वह सर्वज्ञानी है। यूसुफ के भाइयों ने उसे गुलामी में बेंच दिया था परन्तु परमेश्वर ने उन लोगों की बुराई को भी भलाई में बदल दिया - कि इब्राहीम की पूरे राष्ट्र की सन्ताने छुटकारा पाएँ। हमें भी परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं पर विश्वास करने के लिये बुलाया गया है।

  • निर्गमन 7:14 से 10 अध्याय तक हम इस्राएली राष्ट्र के लिये परमेश्वर के उद्धार को देखते हैं। मिस्री लोगों ने उन्हें गुलाम बना लिया था परन्तु परमेश्वर ने मूसा के द्वारा उनपर 10 बड़ी विपत्तियाँ डालकर उन्हें दण्डित किया और इस्राएलियों को स्वतन्त्र किया। परमेश्वर अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करने में विश्वासयोग्य है और उसे ही सारा आदर और महिमा मिलनी चाहिये। 

  •  निर्गमन 20 अध्याय में जो दस आज्ञाएँ दी गयी हैं वे केवल नियम नहीं है कि हम उनका पालन करें, परन्तु ये एक संरचना और ढांचा प्रदान करती हैं कि हम परमेश्वर से कैसे प्रेम करें (शेमा) और यह इस बात में दिखाई पड़ना चाहिये कि हम परमेश्वर और दूसरों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं।

  • मूसा परमेश्वर को देखना चाहता है निर्गमन 33 अध्याय में इस बात का वर्णन मिलता है कि परमेश्वर मूसा को अपना दर्शन नहीं करने देता हैं नहीं तो मूसा मर जाएगा। परन्तु वह मूसा को अपनी महिमा की पीठ देखने की अनुमति देता है। यह ही मसीहियत का सार है: परमेश्वर को देखने की इच्छा, सारी बातों के उपरान्त परमेश्वर ने हमें इसलिये रचा है कि हम उसके साथ संगति करें, हमारी रचना इसीलिये हई है कि हम उसके साथ सहभागिता करें।

  • लैव्यव्यवस्था की पूरी पुस्तक परमेश्वर की पवित्रता के बारे में बताती है कि परमेश्वर निष्पाप है। बलिदान विधि हमें बताती है कि पाप से परमेश्वर के नियमों का उल्लंघन होता है। जिसका सार यह है कि पापों की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी यानी मृत्यु है। परन्तु लैव्यव्यवस्था में यह सिखाया गया है कि परमेश्वर क्षमा भी करता है और एक बलिदान के द्वारा हमारे पापों की कीमत चुकाई जा सकती है, यदि हम पश्चाताप करें। ऐसा करना हमें यीशु मसीह के क्रूस के लिये तैयार करता है।

  • शेमा पुराने नियम का केन्द्र-बिन्दु है ”हे इस्राएल सुन यहोवा हमारा परमेश्वर है, यहोवा एक ही है“ (व्यवस्था विवरण 6:4) यह बात हमें पूर्ण रूप से एक ईश्वर वाद की बात बताती है, जिससे हम किसी भी प्रकार की मूरत, की पूजा नहीं करेंगे।

  • न्यायियों की पुस्तक वाचा के नवीनीकरण की आवश्यकता को दर्शाता है। कि प्रत्येक नई पीढ़ी जो परमेश्वर के पीछे चलना चाहती है उसे स्वयं अपने लिये निर्णय लेना होगा। जब इस्राएलियों को प्रतिज्ञा का देश दे दिया गया, अधिकांश हिस्से में वे वाचा के नवीनीकरण में असफल हो गए। और परमेश्वर से आशीष पाने से भी वंचित हो गए। हमारे अपने परिवारों के ऊपर भी यही बात लागू होती है।

  • 1शमूएल की पुस्तक हमें बताती है कि किस तरह से एक राष्ट्र जो न्यायियों के द्वारा संचालित होता था वह एक राजा का चुनाव करता है, इस्राएल को एक ऐसा राष्ट्र होना चाहिये था जो परमेश्वर के द्वारा शापित होता, इसलिये लोगों का राजा माँगना परमेश्वर का तिरस्कार करना था। शाउल जो पहला राजा था उसने यह सबक नहीं सीखा कि अभी तक परमेश्वर ही राजा है और हमारे लिये यह बात आवश्यक है कि हम विश्वासयोग्य बने रहें। दुर्भाग्य से कई लोग शाउल के जैसी ही गलती करते हैं।

  • यह कहानी इस विषय में नहीं है कि एक छोटा सा लड़का एक महान योद्धा को हरा देता है (1शमूएल 16-17)। यह इस बात का बयान करती है कि चाहे जैसी भी परिस्थितियाँ हों विश्वास हमें प्रभु में आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करता है।

  • भजनसंहिता 23 विश्वास में दाऊद की एक पुकार है कि यहोवा जो उसका चरवाहा है उसकी आवश्यकताओं के पूरा करेगा। और सभी परिस्थितियों में उसकी रक्षा करेगा और परमेश्वर अपनी भेड़ों से भरपूरी से प्रेम करता है।

  • भजनसंहिता 51 में इस बात का नमूना मिलता है कि बाइबल के अनुसार सच्चा अंगीकार क्या है जिसमें हमें अपने अपराधों को मानना है और परमेश्वर के न्याय को जानना है, जिसमे ंकोई बहाना नहीं बनाया गया है और अपने कर्मों पर नहीं परन्तु परमेश्वर की दया पर निर्भर रहना है।

  • सुलैमान सबसे अधिक बुद्धिमान था तौभी उसकी मृत्यु एक मूर्ख के रूप में हुई क्योंकि उसने अपनी ही सलाह (नीतिवचन) को अनदेखा कर दिया। केवल सच्चाई को जान लेना ही काफी नहीं है आपको उसे करना है। बुद्धि का आरम्भ यह जानने से होता है कि परमेश्वर सबसे उत्तम जानता है।

  • अच्छे लोगों के साथ भी बुरी बातें होती हैं। सवाल यह है कि क्या आप कठिन परिस्थितियों में परमेश्वर पर भरोसा रखेंगे, जब हमारे जीवन दुःख से भरे होते हैं और हम सब बातों का उत्तर नहीं जानते तो क्या वह विश्वासयोग्य है?

  • 1राजा 14-18 अध्यायों में एलिय्याह और झूठे धर्म एवं उसके संघर्ष की कहानी है। वह समय ”समन्वयवाद“ (यानी दो धर्मों का मिश्रण) का था। आज हमारे दिलों में भी हमारे सामने यही चुनौती है, विशेष करके मसीहियत और धर्म निरपेक्ष संस्कृतियों का मिश्रण। एलिय्याह हमें चुनौती देता है कि हम दो मन के न हों और हमारी वफादारी भी विभाजित न हो।

  • यशायाह 6:1-8 में यशायाह के दर्शन को बताया गया जो उसने परमेश्वर के सिंहासन को देखा, और वहाँपर हमने आराधना के सच्चे अर्थ के बारे में सीखा, प्रकाशन और प्रतिक्रिया का चक्र। जब परमेश्वर स्वयं को हमारे ऊपर प्रगट करता है तो हमें उचित रूप से जवाब देना चाहिये। इसमें यह सवाल उठता है कि आपका परमेश्वर कितना बड़ा है। 

  • यशायाह 52-53 अध्याय में हमें मसीह की मृत्यु का एक सबसे सटीक धर्म वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिलता है। यशायाह एक ऐसे दास के बारे में भविष्यवाणी करता है जो आने वाला है, जिसको परमेश्वर हमारे पापों के बदले दण्डित करेंगे। जाहिर है कि यह भविष्यवाणी यीशु के विषय में है। यहाँपर हम सीखते हैं कि ऐसा कोई पाप नहीं है जिसे परमेश्वर क्षमा नहीं कर सकता, और शान्ति हमारे अन्दर से नहीं आती परन्तु बाहर यानी परमेश्वर से आती है।

  • मीका ने तीन समूह वाली भविष्यवाणी की जिन्हें हम हाय (न्याय) और सुख (बहाली) से जानते हैं। इस्राएलियों का ऐसा विश्वास था कि उन्हें बाहरी तरीकों से आराधना करनी थी और फिर वे पूरे सप्ताह अपनी मर्जी से चल सकते थे। इसी कारण उन पर न्याय आया परन्तु इस न्याय के साथ परमेश्वर ने उन्हें भविष्य में बहाल करने की प्रतिज्ञा भी की।

  • होशे ने उन लोगों की भविष्यवाणी की जो लगातार पाप में जीवन बिता रहे थे। उनके पापों ने उन्हें मूर्तिपूजा में गिराकर विलासिता के पाप में ढकेल दिया। यहाँ तक कि पाप के तलवे से जब उन्होंने पर्याप्त दण्ड का अनुभव कर लिया, परमेश्वर उन्हें अभी भी माफ करने के लिये विद्यमान है। पापियों को ”वैश्या“ कहा गया है। यानी विश्वासघाती जीवन।

  • हबक्कूक के अन्दर यह सवाल है कि दुष्ट लोग क्यों फलफूल रहे हैं जबकि धर्मी लोग बड़ी दुर्दशा में पड़े हैं। उसके प्रश्न से ऐसा लगता है कि परमेश्वर न्यायी है कि नहीं, क्योंकि हबक्कूक विश्वास से प्रश्न पूछता है परमेश्वर उसके प्रश्न का जवाब यह कह कर देता है कि इन्तजार करो। आखिर में दुष्टों को दण्ड मिलता है और धर्मियों को ईनाम। बीच में यह बात प्रगट होती है कि धर्मी जन धर्मी परमेश्वर पर विश्वास से जीवित रहेगा।

  • यिर्मयाह और यहेजकेल ने बन्धुवाई के पहले व बन्धुवाई के दौरान भविष्यवाणी की जब परमेश्वर के लोग बेबीमलोनियों के द्वारा पराजित हो गए थे तो उन्होंने परमेश्वर के न्याय के साथ-साथ आशा की प्रतिज्ञा का भी प्रचार किया। आशा तो नयी वाचा थी जिसमें परमेश्वर की व्यवस्था पवित्र आत्मा के कार्य के द्वारा उनके हृदयों पर लिखी जाएगी।

  • विलापगीत की पुस्तक यह सिखाती है कि पाप के लिये परमेश्वर के धैर्य का अन्त हो जाता है। यह एक राष्ट्रीय विलाप है जिसमें इस्राएल पाप के प्रति गहरे दुःख को व्यक्त करता है। इसका आरम्भ पाप के कारण के प्रति ईमानदार होकर दूसरों को दोषी न ठहराकर अपने आप को दोषी इहराना है। लेकिन निष्कर्ष में वे परमेश्वर में अपने विश्वास को दिखाते हैं जो पापों को क्षमा करता है।

  • पीछे उत्पत्ति 3:15 में परमेश्वर ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह पाप के लिये कुछ इन्तजाम करेगा। पुराना नियम यह दर्शाता है कि परमेश्वर अपनी प्रतिज्ञा पर कार्य कर रहा है, एक ऐसी प्रतिज्ञा जो आखिरकार यीशु में पूरी हुई। परन्तु लोकप्रिय अपेक्षा के विपरीत यीशु इन्सान से बहुत कुछ बढ़कर थे। वह पूर्णरूप से परमेश्वर थे और पूर्णरूप से मानव भी थे। परन्तु केवल इन सच्चाइयों को जान लेना ही काफी नहीं है परमेश्वर के साथ सम्बन्ध बनाकर चलने के लिये आपको परमेश्वर की आशीष अवश्य प्राप्त करनी होगी।

  • पुराना नियम एक प्रतिज्ञा के साथ में समाप्त होता है - कि परमेश्वर एलिय्याह को भेजेगा ताकि वह लोगों को आने वाले मसीहा के लिये तैयार करे। एलिय्याह यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के रूप में आता है जो लोगों को पश्चाताप के बारे में सिखाकर तैयार करता है। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि एक यहूदी के रूप में जन्म लेने का कोई फायदा नही है, और उन्हें भी यह सीखना पड़ा कि यदि उन्हें परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना है तो उनके पास परमेश्वर को देने के लिये कुछ भी नहीं है।

  • शायद मसीहियों के द्वारा प्रयोग किया जाने वाला सबसे प्रचलित शब्द है ”नए सिरे से जन्म“ लेना या ”फिर से जन्म लेना।“ यह बात यहूदी अगुवे नीकुदेमुस की कहानी से निकल कर आती है। यीशु उसे बताते हैं कि अगर उसे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना है तो वह स्वाभाविक रीति से या अपने कार्योें के द्वारा वह प्रवेश नहीं कर सकता है। केवल परमेश्वर के आत्मा का अलौकिक कार्य ही हमें नया बनाता है। यही नया जन्म है इसी से हमें उद्धार प्राप्त होता है बाइबल के सबसे प्रचलित पद यूहन्ना 3:16 में यह बात समझायी गयी है।

  • क्या आप परमेश्वर के द्वारा धन्य होना चाहते हैं ? यीशु बताते हैं कि यह किस प्रकार से होता है, जो यीशु का प्रचलित पहाड़ी उपदेश है उसके आरम्भ में प्रभु ने आठ बातें बतायी हैं। आम धारणा के विपरीत आशीष अपनी आत्मिक कमजोरी को पहचानने और अपने पापों पर शोक करने से आती है। और इसका परिणाम नम्र होना, हृदय शुद्ध होना, और मेल मिलाप के खोजी होना है। संसार की क्या प्रतिक्रिया होगा ? वह आपको सताएगा और यह भी आपके लिये आशीष है।

  • यीशु सीखाते है कि हमारी प्रार्थना हमारे स्वर्गीय पिता की तरफ मुड़ने से आरम्भ होती है, जिसमें हमें उनकी महिमा की चाहत हो, और उनके राज्य की बढ़ोत्तरी हो, और हमारी शारीरिक और आत्मिक आवश्यकताओं के लिये उस पर सम्पूर्ण निर्भरता में हमारे प्रवेश के साथ समाप्त होती है। यह प्रार्थना मुख्य रूप से परमेश्वर के बारे में है।

  • चिन्ता इस बात के भ्रम को लाती है कि हमारे पास भी कुछ नियन्त्रण है और चिन्ता से भी कुछ प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु यह ऐसा कुछ भी नहीं करती है। चेलों को परमेश्वर पर अटूट विश्वास रखना चाहिये। जब हम देखते हैं कि परमेश्वर अपनी सृष्टि की देखभाल कैसे करता है तो हम इस बात को समझ सकते हैं कि वह हमारी भी देखभाल करेगा। हमारा ध्यान परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज होनी चाहिये और बदले में वह हमारी सारी जरूरतों को पूरा करेगा।

  • मसीह के आने से बहुत साल पहले परमेश्वर ने मूसा से कहा था कि उसका नाम ”मैं हूँ है।“ यीशु वास्तव में इसी नाम महान मैं हूँ को अपने लिये चुनते हैं वह इस प्रकार बताते हैं, जैसे जीवन की रोटी मैं हूँ, जगत की ज्योति मैं हूँ। त्रिएकता का रहस्य, कि एक परमेश्वर है तौभी परमेश्वर में तीन है पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। यह समझना कठिन है हमें परमेश्वर के बारे में सब कुछ जानने की उम्मीद नहीं करनी चाहिये।

  • जब यीशु हमसे कहते हैं कि मेरे पीछे चलो, तो किसी एक व्यक्ति ने कहा है कि आओ और मरो। अपनी व्यक्तिगत महात्वकाक्षाओं के लिये मर जाना, और प्रतिदिन वैसे जियें जैसे आप अपने लिये मर गए हो और प्रभु के लिये जियें। स्वर्ग में केवल चेले ही होंगे।

  • सबसे महत्वपूर्ण और बड़ा कार्य आप क्या कर सकते हैं? परमेश्वर हमसे मुख्य रूप से क्या चाहता है? यह है कि हम अपनी सम्पूर्णता से उससे पे्रम करें। हमारा प्रेम भावनात्मक अवश्य होना चाहिये (केवल आज्ञाकारिता ही नहीं) और व्यक्तिगत होना चाहिये (कि हम परमेश्वर से प्रेम करे न कि उससे सम्बन्धित वस्तुओं से)। यदि हम परमेश्वर से प्रेम करते हैं तो हमें अपने पड़ोसी से भी अवश्य पे्रम करना चाहिये। 

  • शिष्य लोग दो प्रमुख घटनाओं की अपेक्षा में थे: मन्दिर का विनाश और यीशु का दोबारा आगमन, इसके चिन्ह और चेतावनियाँ होगी ताकि वे यरूशलेम से भाग सकें और यह घटना 70 ई०पू० में घटी परन्तु यीशु दोबारा कब आएँगे इसके लिये कोई चिन्ह और चेतावनी नहीं दी गई है और इस युग का अन्त कब होगा। चेलों की यह जिम्मेदारी नहीं है कि वे जाने कि यह कब होगा - यहाँ तक कि यीशु भी नहीं जानते हैं परन्तु तैयार होकर जीवन बिताए हमेशा तैयार रहें।

  • यीशु ने अपनी मृत्यु और पुनरूत्थान से पहले जो शिक्षा दी उनमें से बहुत बातों के साथ उन्होंने अपने चेलों को पवित्र आत्मा के आगमन के बारे में बताया, जो आकर संसार के उसके पापों के लिये और संसार को यीशु की धार्मिकता को दिखाने के लिये, और संसार को आने वाले न्याय के विषय में निरूत्तर करेगा। हम जानते हैं कि यह ”आत्मा“ पवित्र आत्मा है जो त्रिएकता का एक व्यक्ति है।

  • क्रूस से पहले उद्धार का सबसे बड़ा कार्य इस्राएलियों को मिस्र से छुटकारा दिलाना था और इस घटना के उत्सव को मनाने के लिये परमेश्वर ने फसह के पर्व का उत्सव ठहराया, परमेश्वर के उस बड़े अनुग्रह पूर्ण कार्य को जब उसने इस्राएलियों के घरों को छोड़कर मिस्र देश के सारे पहिलौठों को मारा, इस बड़े उत्सव को मनाना था। और अब परमेश्वर अपने पुत्र को क्रूस पर मार करके सबसे बड़े उद्धार के कार्य को करने जा रहा है। मसीहियों को पीछे मिस्र की तरफ देखकर नहीं परन्तु यीशु की मृत्यु और उसके दोबारा आगमन को देखकर फसह का पर्व मनाना है।

  • यीशु की मृत्यु और पुनरूत्थान केवल यीशु के जीवन का ही नहीं परन्तु इतिहास के उस बिन्दु की भी पराकाष्ठा है। यीशु क्रूस पर मरे ताकि हम परमेश्वर के मित्र बन जाएँ और कब्र से जी उठने के द्वारा यीशु ने मृत्यु पर विजय हासिल की। मन्दिर का वह परदा जो परमेश्वर और मनुष्य के बीच दूरी का एक चिन्ह था वह ऊपर से नीचे तक दो भागों में बट गया और अब हम सीधे परमेश्वर से सम्बन्ध रख सकते हैं।

  • पृथ्वी पर यीशु का अन्तिम कार्य अपने चेलों को महान आदेश देना था। उनका प्रमुख कार्य चेले बनाना है। उन्हें सुसमाचार का प्रचार करके, नए चेले बनाने है, उनको बपतिस्मा देना है, और यीशु ने जितनी भी बातें सिखाई है उन्हें मानना सिखाकर उन्हें पूर्ण रूप से समर्पित चेले तैयार करने हैं। क्योंकि परमेश्वर सबके ऊपर राज्य करता है हमें यह अवश्य करना है क्योंकि वह हमें कभी नहीं छोड़ेगा, और हम यह कर सकते हैं।

  • यहूदी पर्व पिन्तेकुस्त के दौरान फसह के 50 दिनों के बाद यीशु की प्रतिज्ञा पूरी हुई और पवित्र आत्मा ने आकर यीशु के सभी अनुयायियों को सामथ्र्य दी, उन्हें अलौकिक सामथ्र्य दी और दूसरी बातों के साथ उन्हें ऐसी मानवीय भाषा बोलने की सामथ्र्य दी जो उन्होंने सीखी नहीं थी। पतरस इस घटना को पुराने नियम की भविष्यवाणियाँ पूरी होना बताते हैं और फिर उस मौलिक सन्देश का प्रचार करते हैं जो प्रेरतों  के काम की पूरी पुस्तक में पाया जाता है। यीशु रहे, मर गए, और मुर्दों में से जी उठे। इसीलिये सभी लोगों को पश्चाताप करने की बुलाहट है, जिन्हें यीशु के बारे में गलत फहमी है।

  • कलीसिया कोई इमारत या गतिविधि नहीं है कलीसिया सभी सच्चे विश्वासियों का एक झुण्ड है, मसीह सिर है। हम उसकी देह है! हम एक परिवार हैं! हम परमेश्वर का मन्दिर हैं यानी वह स्थान जहाँ पर परमेश्वर निवास करता है।

  • हमारे पापों के लिये हमें दोषी न ठहराया जाना धर्मी ठहरने का सिद्धान्त है। यह केवल परमेश्वर का ही कार्य है इसमें हमारा कोई योगदान नहीं है। रोमियों 1:16-17 और 3:21-26 में पौलुस इसे स्पष्ट करते हैं कि धर्मी ठहराए जाने की यह घोषणा हमारे ‘‘कार्यों’’ पर आधारित नहीं हैं परन्तु यह हमारे उस ‘‘विश्वास’’ पर आधारित है जो हम यीशु पर करते हैं कि जो कुछ यीशु ने क्रूस पर हमारे लिये किया जो हम स्वयं के लिये नहीं कर सकते थे।

  • केवल अनुग्रह के द्वारा हमारा उद्धार ही नहीं हुआ है परन्तु यही अनुग्रह हमें पूरे जीवन भर सम्भालता है। हम धन किस प्रकार से देते हैं, यह एक तरीका है जिससे परमेश्वर के अनुग्रह का पता चलता है। परमेश्वर का अनुग्रह दोनों बातों, दान देने की चाहत रखना दान देने की सामथ्र्य प्रदान करता है। यदि कोई नहीं देता है तो उन्हें अपने हृदय की इस दशा को जाँचना चाहिये, कि परमेश्वर का अनुग्रह उनमें सक्रिय क्यांे नहीं है।

  • रोमियों 5-8 में पौलुस हमें बहुत से कारण याद दिलाते हैं जिसके कारण हम प्रसन्न रहते हैं। परमेश्वर से हमारा मेल मिलाप हो गया है, हम पूरी तरह से उससे मेल मिलाप कर चुके हैं, हम पाप से छुटकारा पा चुके हैं और जो मसीह यीशु में हैं अब उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं। पवित्र आत्मा हमारे अन्दर रहता है, हमेे परमेश्वर के परिवार में अपना लिया गया है, हमे इस बात का आश्वासन मिला है कि हम उसकी सन्तान हैं, धर्मी जीवन का यही आनन्द है।

  • फिलिप्पियों की कलीसिया से पौलुस चाहते थे कि वे विनम्रता एवं दीनता को समझें। उन्हें एक मुख्य बात पर एक मन होना था जो विनम्रता थी, जो मसीह में आप क्या हैं की समझ से निकालती है उदाहरण के लिये हम यीशु की तरफ देखते हैं जो परमेश्वर के तुल्य होने के बावजूद अपने आप को इन्सान के रूप में दीन किया और इसी कारण उन्हें महान किया गया। उद्धार पाने से क्या उत्पन्न होता है हमें उस पर गहनता से विचार करना चाहिये।

  • मसीही लोग बाइबल के मसीही हैं हमारा विश्वास है कि सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र परमेश्वर के मुँह से निकला है। यह सत्य है और हमारे जीवन पर इसका अधिकार है चुनौती का वह बिन्दु है जब आप वास्तव में इस पर विश्वास करें।

  • इब्रानियों की पुस्तक मसीह की सर्वोच्चता कि वह सब लोगों के और सारी चीजों के ऊपर सर्वोच्च है इसका गहरा धर्म वैज्ञानिक अध्ययन है पूरी पत्री में ऐसी चेतावनियाँ दी गयी हैं जिनमें लेखक कहता है कि विश्वासी लोग कहीं विश्वास से भटक न जाएँ। यदि लोग मसीही विश्वास को छोड़ देते हैं तो उनके लिये यह आश्वासन है कि वे एक सच्चे मसीही नहीं हैं।

  • जीभ को वश में करने से कठिन और कोई बात नहीं है। यह लोगों की प्रतिष्ठा को खत्म कर देती है, हम कई बार चोटिल और घायल होते हैं। हम चाहते हैं कि लोग हमें सही समझें इसलिये हम ईश्वर भक्ति का भेष घरते हैं। जीभ पर विजय पाने का केवल एक ही रास्ता है कि हम हृदय पर कार्य करें, क्योंकि जो कुछ मन से निकलता है वहीं मुँह बोलता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि गपशप कलीसिया में भी सामान्य बात हो गई है, परन्तु इसपर विजय हासिल की जा सकती है।

  • जीवन के बुनियादी सवालों में से एक यह है कि एक सर्वशक्तिमान और इतना भला और अच्छा परमेश्वर दुःख और पीड़ा को क्यों अनुमति देता है। पतरस इस प्रश्न का सामना करने के लिये हमारा ध्यान जीवन की वास्तविकताओं की ओर लगाते हैं, विशेष करके यह सच्चाई कि हम इस पृथ्वी पर परदेशी और बाहरी हैं और हमारा अपना घर स्वर्ग में है। दुःखों के बीच में हमें इस बात को भी जानना है कि परमेश्वर अब भी हमारी भलाई के लिये ही कार्य कर रहा है।

  • यूहन्ना की पहली पत्री मुख्य रूप से प्रेम के बारे में है। परमेश्वर ने हमसे प्रेम किया है तो हमें दूसरों से भी प्रेम  करना चाहिये। प्रेम केवल सामान्यतयः भावना ही नहीं परन्तु इसमें कार्य शामिल होता है। परमेश्वर ने हमसे प्रेम किया इसलिये उसने अपने पुत्र को भेजा। प्रेम  में दूसरों की भलाई के लिये अपने आपको दे देना है।

  • बाइबल इस बात की भविष्यवाणी के साथ बन्द होती है कि समस्त वस्तुएँ कैसे समाप्त होंगी। इस पुस्तक के सही अर्थ को जानने के लिये बहुत सारे प्रश्न हैं इसका केन्द्रीय सन्देश बिलकुल स्पष्ट है परमेश्वर हमें कष्टों और सताव से नहीं बचाएगा। यह और भी बुरा होता जाएगा। परमेश्वर ने हमें कष्टों के बीच में भी विश्वासयोग्य होने के लिये बुलाया है। यदि हम अन्त तक विश्सवासयोग्य बने रहें तो हमें ईनाम मिलेगा। हम एक नए आकाश और नई पृथ्वी की बाट जोह रहे हैं जहाँ पर कोई भी कष्ट नहीं होगा, कोई दुःख और पाप नहीं होगा। अन्त में फिर से अदन का बगीचा स्थापित होगा। हमें इसलिये बनाया गया था कि हम परमेश्वर के साथ सहभागिता करें और हम उस दिन का इन्तजार कर रहे हैं जब यीशु हमें फिर से घर ले जाने के लिये आएँगे।

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