बाइबिल की 52 कहानियाँ
Learn the basic structure, stories, and characters of the Bible.
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Lectures
उत्पत्ति का पहला अध्याय सम्पूर्ण बाइबिल के लिये मूल-भूत अध्याय है। यह हमें केवल यह ही नहीं बताता है कि सारी चीजों का आरम्भ कैसे हुआ, परन्तु यह इस बात की बुनियादी शिक्षा भी देता है कि परमेश्वर कौन है और हम परमेश्वर से कैसे सम्बन्धित हैं। इतिहास और विज्ञान के द्वितीय मुद्दों पर तर्क वितर्क न करके, उत्पत्ति का 1 अध्याय हमें बताता है कि हमंे अपनी आखें स्वर्ग की ओर लगानी चाहिये। जो परमेश्वर की महिमा का अद्भुत बयान करता है।
सृष्टि के छठवें दिन हम यह सीखते हैं कि इंसान परमेश्वर के सृष्टि की सर्वोत्तम रचना है, जिसे परमेश्वर के स्वरूप में रचा गया है। यह मनुष्य की गरिमा का स्रोत है और इसीलिये हम आत्मिक तरक्की करना चाहते हैं ताकि हम और आधिक उसके समान दिखाई पड़ सकें।
उत्पत्ति का 3 अध्याय इस बात का वर्णन करता है कि आदम और हव्वा किस तरह से पाप में गिर गए थे। और उनके पाप के कारण, कैसे परमेश्वर से उनका और समस्त मानव जाति का सम्बन्ध टूट गया, और वहाँ पर परमेश्वर एक उद्धारकर्ता की प्रतिज्ञा करता है।
उत्पत्ति 6-9 अध्यायों में बच्चों की कहानी नहीं है, यह हमारे पाप के प्रति परमेश्वर के क्रोध को दर्शाता है और फिर यह भी दिखाता है कि परमेश्वर छुड़ाने वाला परमेश्वर है। नूह की तरह हमें अपने विश्वास में कदम उठाने के लिये चुनौती देती है।
उत्पत्ति 12:1-15:6 एक व्यक्ति इब्राहीम पर केन्द्रित है जो अदन के बगीचे के मानव जाति के छुटकारे के लिये की गयी प्रतिज्ञा के पूरे होने का हिस्सा है। इब्राहीम को दो कार्य करना आवश्यक है, विश्वास करना और उस विश्वास के अनुसार कार्य करना। और जब वह ऐसा करता है तो परमेश्वर उसके साथ और उसकी सारी सन्तानों के साथ और इस्राएल और कलीसिया के साथ एक अनन्त वाचा बान्धता है। हमें भी अपने आत्मिक पिता के पद चिन्हों पर चलना चाहिये: विश्वास करें व उसके अनुसार कार्य करें।
उत्पत्ति 37-50 अधयायों में यूसुफ की कहानी मिलती है जो परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं के प्रति विश्वासयोग्यता का वर्णन है। जो उसने इब्राहीम से की थी कि वह सर्वशक्तिमान है और वह सर्वज्ञानी है। यूसुफ के भाइयों ने उसे गुलामी में बेंच दिया था परन्तु परमेश्वर ने उन लोगों की बुराई को भी भलाई में बदल दिया - कि इब्राहीम की पूरे राष्ट्र की सन्ताने छुटकारा पाएँ। हमें भी परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं पर विश्वास करने के लिये बुलाया गया है।
निर्गमन 7:14 से 10 अध्याय तक हम इस्राएली राष्ट्र के लिये परमेश्वर के उद्धार को देखते हैं। मिस्री लोगों ने उन्हें गुलाम बना लिया था परन्तु परमेश्वर ने मूसा के द्वारा उनपर 10 बड़ी विपत्तियाँ डालकर उन्हें दण्डित किया और इस्राएलियों को स्वतन्त्र किया। परमेश्वर अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करने में विश्वासयोग्य है और उसे ही सारा आदर और महिमा मिलनी चाहिये।
निर्गमन 20 अध्याय में जो दस आज्ञाएँ दी गयी हैं वे केवल नियम नहीं है कि हम उनका पालन करें, परन्तु ये एक संरचना और ढांचा प्रदान करती हैं कि हम परमेश्वर से कैसे प्रेम करें (शेमा) और यह इस बात में दिखाई पड़ना चाहिये कि हम परमेश्वर और दूसरों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं।
मूसा परमेश्वर को देखना चाहता है निर्गमन 33 अध्याय में इस बात का वर्णन मिलता है कि परमेश्वर मूसा को अपना दर्शन नहीं करने देता हैं नहीं तो मूसा मर जाएगा। परन्तु वह मूसा को अपनी महिमा की पीठ देखने की अनुमति देता है। यह ही मसीहियत का सार है: परमेश्वर को देखने की इच्छा, सारी बातों के उपरान्त परमेश्वर ने हमें इसलिये रचा है कि हम उसके साथ संगति करें, हमारी रचना इसीलिये हई है कि हम उसके साथ सहभागिता करें।
लैव्यव्यवस्था की पूरी पुस्तक परमेश्वर की पवित्रता के बारे में बताती है कि परमेश्वर निष्पाप है। बलिदान विधि हमें बताती है कि पाप से परमेश्वर के नियमों का उल्लंघन होता है। जिसका सार यह है कि पापों की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी यानी मृत्यु है। परन्तु लैव्यव्यवस्था में यह सिखाया गया है कि परमेश्वर क्षमा भी करता है और एक बलिदान के द्वारा हमारे पापों की कीमत चुकाई जा सकती है, यदि हम पश्चाताप करें। ऐसा करना हमें यीशु मसीह के क्रूस के लिये तैयार करता है।
शेमा पुराने नियम का केन्द्र-बिन्दु है ”हे इस्राएल सुन यहोवा हमारा परमेश्वर है, यहोवा एक ही है“ (व्यवस्था विवरण 6:4) यह बात हमें पूर्ण रूप से एक ईश्वर वाद की बात बताती है, जिससे हम किसी भी प्रकार की मूरत, की पूजा नहीं करेंगे।
न्यायियों की पुस्तक वाचा के नवीनीकरण की आवश्यकता को दर्शाता है। कि प्रत्येक नई पीढ़ी जो परमेश्वर के पीछे चलना चाहती है उसे स्वयं अपने लिये निर्णय लेना होगा। जब इस्राएलियों को प्रतिज्ञा का देश दे दिया गया, अधिकांश हिस्से में वे वाचा के नवीनीकरण में असफल हो गए। और परमेश्वर से आशीष पाने से भी वंचित हो गए। हमारे अपने परिवारों के ऊपर भी यही बात लागू होती है।
1शमूएल की पुस्तक हमें बताती है कि किस तरह से एक राष्ट्र जो न्यायियों के द्वारा संचालित होता था वह एक राजा का चुनाव करता है, इस्राएल को एक ऐसा राष्ट्र होना चाहिये था जो परमेश्वर के द्वारा शापित होता, इसलिये लोगों का राजा माँगना परमेश्वर का तिरस्कार करना था। शाउल जो पहला राजा था उसने यह सबक नहीं सीखा कि अभी तक परमेश्वर ही राजा है और हमारे लिये यह बात आवश्यक है कि हम विश्वासयोग्य बने रहें। दुर्भाग्य से कई लोग शाउल के जैसी ही गलती करते हैं।
यह कहानी इस विषय में नहीं है कि एक छोटा सा लड़का एक महान योद्धा को हरा देता है (1शमूएल 16-17)। यह इस बात का बयान करती है कि चाहे जैसी भी परिस्थितियाँ हों विश्वास हमें प्रभु में आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करता है।
भजनसंहिता 23 विश्वास में दाऊद की एक पुकार है कि यहोवा जो उसका चरवाहा है उसकी आवश्यकताओं के पूरा करेगा। और सभी परिस्थितियों में उसकी रक्षा करेगा और परमेश्वर अपनी भेड़ों से भरपूरी से प्रेम करता है।
भजनसंहिता 51 में इस बात का नमूना मिलता है कि बाइबल के अनुसार सच्चा अंगीकार क्या है जिसमें हमें अपने अपराधों को मानना है और परमेश्वर के न्याय को जानना है, जिसमे ंकोई बहाना नहीं बनाया गया है और अपने कर्मों पर नहीं परन्तु परमेश्वर की दया पर निर्भर रहना है।
सुलैमान सबसे अधिक बुद्धिमान था तौभी उसकी मृत्यु एक मूर्ख के रूप में हुई क्योंकि उसने अपनी ही सलाह (नीतिवचन) को अनदेखा कर दिया। केवल सच्चाई को जान लेना ही काफी नहीं है आपको उसे करना है। बुद्धि का आरम्भ यह जानने से होता है कि परमेश्वर सबसे उत्तम जानता है।
अच्छे लोगों के साथ भी बुरी बातें होती हैं। सवाल यह है कि क्या आप कठिन परिस्थितियों में परमेश्वर पर भरोसा रखेंगे, जब हमारे जीवन दुःख से भरे होते हैं और हम सब बातों का उत्तर नहीं जानते तो क्या वह विश्वासयोग्य है?
1राजा 14-18 अध्यायों में एलिय्याह और झूठे धर्म एवं उसके संघर्ष की कहानी है। वह समय ”समन्वयवाद“ (यानी दो धर्मों का मिश्रण) का था। आज हमारे दिलों में भी हमारे सामने यही चुनौती है, विशेष करके मसीहियत और धर्म निरपेक्ष संस्कृतियों का मिश्रण। एलिय्याह हमें चुनौती देता है कि हम दो मन के न हों और हमारी वफादारी भी विभाजित न हो।
यशायाह 6:1-8 में यशायाह के दर्शन को बताया गया जो उसने परमेश्वर के सिंहासन को देखा, और वहाँपर हमने आराधना के सच्चे अर्थ के बारे में सीखा, प्रकाशन और प्रतिक्रिया का चक्र। जब परमेश्वर स्वयं को हमारे ऊपर प्रगट करता है तो हमें उचित रूप से जवाब देना चाहिये। इसमें यह सवाल उठता है कि आपका परमेश्वर कितना बड़ा है।
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Frequently Asked Questions
Who are the programs intended for?
The Foundations program is intended for everyone, regardless of biblical knowledge. The Academy program is intended for those who would like more advanced studies. And the Institute program is intended for those who want to study seminary-level classes.
Do I need to take the classes in a specific order?
In the Foundations and Academy programs, we recommend taking the classes in the order presented, as each subsequent class will build on material from previous classes. In the Institute program, the first 11 classes are foundational. Beginning with Psalms, the classes are on specific books of the Bible or various topics.
Do you offer transfer credit for completing a certificate program?
At this time, we offer certificates only for the classes on the Certificates page. While we do not offer transfer credit for completing a certificate program, you will be better equipped to study the Bible and apply its teachings to your life.